उन्नाव, मंगलवार साथियों, दिनेश 'प्रियमन' जी से हम सभी भली भांति परिचित हैं। इनकी कविताओं, गीतों, गज़लों से भी अधिकांश साथियों का साक्षात्कार हुआ होगा। सजग रचनाकार के साथ एक संस्कृति कर्मी के रूप में इनकी सतत सक्रियता मुझे प्रेरित करती है।
इधर 'कोरोना काल' में उत्पन्न विषम परिस्थितियों को प्रियमन जी ने अपनी कविताओं में जिस तरह से उकेरा है वह हम सबके लिए विचारणीय है।
संवाद के लिए यहां प्रियमन जी द्वारा सद्य: लिखित 'अनचाही खबरों के बीच' सिरीज की छः कविताएं प्रस्तुत हैं---
अनचाही खबरों के बीच
कैद कर दिये जाने की यह मजबूरी
बहुत सी नयी बातें पैदा कर रही है
सबसे पहले तो यही कि मकान बदल गया घर में
और घर धीरे धीरे बदल रहा है घोसले में
इससे पहले क्या इतनी जल्दी
मकान को घर में बदलते देखा है आपने
अभी यह शुरुआत है
कुछ भी हो, - मृत्यु की कीमत पर भी
मकान घोसलों में बदल जायें तो बुरा क्या है? 🤔🤔
मकान में जिंदगी के बजाय वैसे भी
धीमी मौत आ गयी थी
चिड़ियों का आशियाना मकान से बेहतर है हमेशा
पृथ्वी पर सब कुछ बदल देने की कूबत का भ्रम टूटना
क्या इतना आसान था?
कैद हो जाने की इस मजबूरी ने
टी वी पर मरने वालों की संख्या सुनते सुनते
मृत्यु से कितना निडर कर दिया है
कि मृत्यु चाहे महामारी से हो या भूख से
मौत की सम्भावना क्या थी इतनी सहज
इससे पहले
कैद कर दिये जाने की यह मजबूरी
एक पाठ भी है मन की मजबूती का
इन दिनों कई अनचाही खबरों के बीच
# प्रियमन --02 .04.2020
अनचाही खबरों के बीच-2
महामारी से घरबंदी की इस मजबूरी ने
दो विश्वयुद्धों के बाद पहली बार बहुत कुछ नया किया है
पहली बार बह रही है इन दिनों इतनी साफ हवा
दुनियां भर के नदी, नाले ही नहीं समुद्र तक में
आ गयी जल प्रदूषण में इतनी कमी पहली बार
पहली बार पृथ्वी की सतह पर कंपन की निगरानी करने वाले वैज्ञानिकों को मिल रहा है शोर का ध्वनि-स्तर इतना कम कि मिट गया है रात और दिन का फर्क
कहा जा रहा है, अब भूकम्प आने से पहले की भविष्यवाणी होगी और सटीक
पहली बार पृथ्वी पर आदमी की इस घरबंदी ने
तमाम तकलीफों के बदले
दिये हैं तमाम सारे जि़ंदगी के ज़रूरी सुख
सोच रहा हूँ,- अनचाही खबरों के बीच इस महामारी की घरबंदी ने लौटाये हैं कितने सुख
यह घरबंदी पृथ्वी पर हमारे जीवन की नई शुरुआत भी
हो सकती है
जहरीली हवा,पानी,शोर से मुक्त
#प्रियमन - 03.04.2020
अनचाही खबरों के बीच -3
हम नहीं चाहते किसी की भी अकाल मौत
ऐसे दुश्मन की भी नहीं
जिसकी जि़दगी हमारी मौत के कारोबार से
अब तक चलती आयी है
हम नहीं चाहते अपनी दुश्वारियों की मुक्ति में
प्रार्थना तक को साझीदार बनाना
हम किसी के रहमो- क़रम पर
जिंदा रहने से बेहतर मानते हैं आखिरी साँस तक
तड़पते रहना
हमें मालूम है, केवल लड़ना है जीवन का अंतिम अरण्य
देखना, महामारी के अंतिम क्षणों में
जीतेगी जि़दगी ही, हारेगी मौत
#प्रियमन-05.04.2020
अनचाही खबरों के बीच-4
महामारी में तालाबंदी के दो हफ्तों बाद आज जान पाया अम्मा का दुःख
शाम के खाने पर जब अम्मा सुबक पडी़ यक ब यक
आज सुन पाया पिछले दो हफ्तों से मथते
उनके मन की अनुगूँज
देश की राजधानी में बाहर रहते
माँ हो चुकी बेटी,जवान हो चुके बेटे
जिनकी अपनी जि़दगी है, अपनी दुनियां
कैसे खेलते हैं आज भी अपनी अस्सी पार
दादी के मन की गोद में
आज जान पाया
आज जान पाया बुढ़ापा कैसे पोसता है पीढि़यों की याद
महामारी से अस्पताल में भर्ती किये जा रहे लोग
संक्रमण के संदेह में पकड़े जाने के डर से भागते
फिर भी पकड़े जाते लोग
लगातार मौत के बढ़ते आँकडे़
भीतर भीतर सहती अम्मा की चढी़ आँखों का गुप्त रिसाव
आज जान पाया
आज जान पाया
क्यों नहीं आती बूढो़ं को भर आँख नींद
क्यों उचट जाती है रात में गर अम्मा की नींद
वह रात भर नहीं आती
#प्रियमन- 06.04.2020
अनचाही खबरों के बीच-5
घर को घर समझने में कितने साल लगे
सभ्यताओं के इतिहास में पढी़ यह बात याद आ रही आज फिर
लाखों साल पहले जब आदिमानव ने
गुफाओं में खोजा अपना घर
नहीं पता शिकार पर निकलने और रास्ता भटक जानेपर
वे गुफा घर को याद करते थे या नहीं
हमारे समय में
जब अंतरिक्ष पर कब्जा करने की तैयारियां चल रही हैं घरों से रोटी के शिकार में निकले लाखों लोग
महामारी से मौत के डर में
महानगरों की गुफाओं से
लौट रहे हैं
अपने समय के नये पाषाण काल में
यह उत्तर आधुनिकता से निकले उत्तर सत्य काल की
घटना का साक्षात्कार है
जब चन्द दिनों पहले सफल होने से एक कदम पीछे
रह गया चन्द्रयान
लोग रोटी के शिकार से असफल लौटेअपने पैदाइशी घरों में हजारों मील पैदल चलते
हम साफ पानी, हवा और दवा पाने में मजबूर
उत्तर सत्यकालीन लोग
मान रहे हैं
महामारी में भी महानगरों के बजाय
अपने घर में भूखे - प्यासे मरना बेहतर
#प्रियमन - 07.04.2020
अनचाही खबरों के बीच-6
अच्छा - खराब यों तो भाषाओं में विलोम शब्द हैं
पर सभ्यता के इतिहास में हैं समय की जुड़वां संताने
बहुत सा अच्छा - खराब घटता रहा साथ साथ
सभ्यता की दुर्धर्ष यात्रा में कुछ ऐसा
कि हम न कभी पूरे अच्छे हो पाये, न खराब
सोचिये कैसे हम गाते रहे 'ऊँ सहनाववतु सहनौभुनक्तु'
और छूटता रहा जीव का जीव से
आदमी का आदमी से रिश्ता
एक तरफ चलता रहा शान्ति - पाठ
दूसरी और चलती रही परमाणु- युद्ध की तैयारी
कितनी सामाजिक महामारियों के जनक थे हम ही
वहीं हमसे से कुछ थे जो उनसे मुक्ति के परीक्षण में
दे रहे अपने प्राण
हजारों सहस्त्राब्दियों की सभ्यता - यात्रा में
हमारे समय तक यह जो आयी महामारी
जिसके बचाव में मजबूत की जा रही
सामाजिक /भौतिक दूरी
कहीं बन न जाये छुआछूत की वापसी का कलंक कारक
डर है कि कहीं लौट न आये मनुष्यता के विभाजन का
वही खतरनाक औजार एक बार फिर
कोरोना के बहाने
हाँ, डर है कि यह महामारी किसी के लिये छुआछूत की वापसी का हथियार न बने जिसके विषाणु का फिर कोई इलाज न हो कोविड-19 की तरह
#प्रियमन 09.04.2020
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