पुरस्कार-वापसी की पुनर्वापसी है "टूलकिट"


लेखक डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय
जो कि कवि और समालोचक भी हैं वह पुरस्कार वापसी पर अपने विचारों को कुछ इस प्रकार प्रकट करते हैं।

सितंबर 2015 का वह दौर जब भारत की असहिष्णुता तथाकथित भारतीय बुद्धिजीवियों और लेखकों के लिए चरम पर थी । 'न्यूयार्क टाइम्स' (अमेरिका), 'टेलीग्राफ' (लंदन) और 'डान' जैसे कई अख़बार वैश्विक पटल पर भारत की छवि लगातार धूमिल कर रहे थे । लेखकों की अंतरराष्ट्रीय संस्था 'पेन' भी इस मुद्दे को हवा दे रही थी । यहां तक की ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को असहिष्णुता के मुद्दे पर भारतीय प्रधानमंत्री से बात करने के लिए दबाव भी बनाया गया । एक के बाद एक लगभग तीन दर्ज़न से अधिक लेखकों ने साहित्य अकादमी को अपने-अपने पुरस्कार लौटा दिए । चारों ओर ग़ुबार ही ग़ुबार । प्रो कलबुर्गी की हत्या और कुछ साम्प्रदायिक दंगों की आड़ में असहिष्णुता की आँधी चल रही थी । सूत्रधारों की मटमैली आकृतियों के लिए यह समय राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा पानेे एवं अकादमी से चुन-चुनकर बदला लेने का था । इनमें सर्वाधिक त्रासद लेखकों के साथ - साथ राष्ट्र की गिरती छवि थी । आज के संदर्भ में यदि देखा जाए तो पुरस्कार - वापसी की पुनर्वापसी है "टूलकिट"। आज भी भारत की छवि को धूमिल करने का अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र अपने उफान पर है। हाँ, नेतृत्व बदला है लेकिन मकसद एक है ।

         स्थिति की गंभीरता इसी से लगाई जा सकती है कि इस मुहिम में अमेरिका और ब्रिटेन भी शामिल हैं। भारत के निजी मामलों में वाइडन प्रशासन का हस्तक्षेप चिंता का विषय है। भारत के लोकतंत्र एवं उच्चतम न्यायालय पर बयानबाजी अनावश्यक है। दूसरी ओर ब्रिटिश संसद की एक समिति किसानों के प्रदर्शन एवं भारतीय प्रेस की आजादी पर 'हाउस ऑफ कॉमंस' में चर्चा करवाने के लिए उतावली दिख रही है। ऑनलाइन याचिका पर दस्तखत करने वालों में पीएम बोरिस जॉनसन भी हैं। वहीं भारत के कुछ बुद्धिजीवी चैनल इस पक्ष में ताल ठोक रहे हैं कि किसान आंदोलन भारत का अंदरुनी मामला नहीं है। कुल मिलाकर सभी षडयंत्रकारी 'टूलकिट' के माध्यम से किसानों के कंधों पर बंदूक रख भारत को खोखला करने पर आमादा हैं । ध्यातव्य है भारतीय किसानों के कंधे दूसरों के बंदूक रखने के लिए नहीं बने हैं। इनके कंधों पर हल होता है। हल का एक अर्थ समाधान भी है। समाधान और विवाद दोनों एक साथ ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकते। कोई भी विचार अथवा संस्था इन्हें भोला समझने की भूल न करे और न ही इन पर अपनी सहानुभूति दिखाए। भारतीय किसान उत्पादक, पालक और संहारक होता है। उसे सत्य और असत्य की परख है। 

              यह जानना दिलचस्प है कि 'टूलकिट' का एक्शन प्लान खालिस्तानी समर्थक संगठन 'पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन' की ओर से बनाया गया है। सोशल मीडिया पर पहले इसे अपलोड किया गया फिर डिलीट कर दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य सरकार के खिलाफ ट्वीट करना एवं करवाना था। गणतंत्र दिवस पर मचे उपद्रव में इसी टूलकिट की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पुलिस के द्वारा इस मुहिम का पर्दाफाश किया गया बावजूद इसके अब भी उनकी रणनीति काम कर रही है। भारत के खिलाफ डिजिटल स्ट्राइक में पॉप स्टार रिहाना और स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग खुलकर सामने आईं। उन्हें भारतीय किसानों से सहानुभूति है। अतः ये हस्तियाँ किसान-प्रदर्शन के समर्थन में एकजुट हैं। शायद उन्हें नहीं मालुम कि उनका इस्तेमाल भारत विरोधी एजेंडे के लिए हो रहा है। खालिस्तानी वेबसाइट "आस्क इंडिया व्हाई" के एक्शन प्लान में वे सभी योजनाएं शामिल हैं जिनसे सरकार की छवि धूमिल हो। वेबसाइट पर बाकायदे लिखा गया है कि सेलेब्रिटीज से क्या कहलवाना है? कैसे अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करना है? किसे टैग करना है? किसे हैशटैग करना है आदि। 

         अमेरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भांजी मीना हैरिस ने ज्यों ही लिखा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर हमला हो रहा है, इस बयानबाजी को तुरंत किसान आंदोलन से जोड़ दिया गया। भारतीय मीडिया का एक गुट एवं विरोधी पक्ष के नेता दिवाली मनाने लगे । वे मानने लगे कि अब सरकार की अंतराष्ट्रीय किरकिरी हो रही है। उन्हें यह नहीं मालुम कि "टूलकिट" का खेल फेल हो रहा है। किसान पीछे रह गए और भारत-विरोध आगे निकल गया। सच्चाई सामने आने पर पश्चिमी मीडिया भी बैकफुट पर आ चुकी है । बुद्धिजीवी बगले झाँकने लगे हैं। 

          खैर, हमारे राष्ट्र पर भौगोलिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैचारिक हमले होते रहे हैं। कभी देश के बाहर से तो कभी अपनों से। हमने मिलकर लड़ाई लड़ी और आसुरी शक्तियों को परास्त किया। हमेशा से हम कहते आए हैं "सत्यमेव जयते"। इसीलिए तो इक़बाल ने लिखा है - 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।' अस्तु। 


डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय कवि और समालोचक

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