हिन्द स्वराज्य' आज भी हमारे लिए सबसे चमकदार प्रकाश स्तंभ की तरह पथ प्रदर्शित करती है

 
नैतिकता को आत्मसात करने से अहिंसा का जीवन में प्रवेश होना नैसर्गिक नियम है। गांधीजी ने भी संभवत: इसलिए अहिंसा पर बड़ा बल दिया था। इसीलिए अहिंसा व नैतिकता के सूत्रों में रचे-पगे गांधीजी की यह किताब मूल रूप से द्वेष धर्म की जगह पर प्रेम धर्म और हिंसा की जगह आत्मबलिदान को ऊपर रखती है। पशुबल से टक्कर लेने के लिए वह आत्मबल को खड़ा करती है। अगर हम यह सोचें कि आखिर क्यों आज भी इस पुस्तक को उद्धृत किये जाने की ज़रूरत पड़ती है, तो हम कह सकते हैं कि उनके संपूर्ण लेखन व कर्म के जो दो सारतत्व ही आज भी प्रसंगिक हैं और सदा-सर्वदा बने रहेंगे, वे हैं- 'नैतिक नियमों के पालन में ही मनुष्य जाति का कल्याण है' और 'नीति का पालन आवश्यक है।'
मानव जाति के इतिहास में अनेक लोगों ने दुनिया को अपने विचारों व कर्मों से आलोकित किया है। ऐसे लोगों की बड़ी लम्बी फेहरिस्त है। उनके विचार किताबों, लेखों, भाषणों (नए माध्यमों के जरिए भी) की शक्ल में हमारे पास मौजूद हैं। ऐसे विसिष्ट व्यक्तियों व विचारों से संबंधित इस चर्चा को वैश्विक बनाने की बजाए अगर हम भारत के संदर्भ में देखें तो आधुनिक भारतीय चेतना व हमारी सामाजिक संवेदना को कार्ल मार्क्स के 'दास केपिटल', एडम स्मिथ की 'थ्योरी ऑफ मॉरल सेंटीमेंट्स', जोतिबा फुले की 'गुलामगिरी' और गांधीजी की 'हिन्द स्वराज्य' ने सर्वाधिक प्रभावित किया है।*
गांधी का प्रभाव हमारे सामाजिक-राजनैतिक व वैचारिक जीवन पर सर्वाधिक होने के कारण शायद उनके चिंतन-दर्शन के निचोड़ रूप में प्रस्तुत 'हिन्द स्वराज्य' आज भी हमारे लिए सबसे चमकदार प्रकाश स्तंभ की तरह पथ प्रदर्शित करती है, खासकर जब अंधेरा ज्यादा स्याह हो रहा हो और तूफानी लहरें अधिक शक्तिशाली बनकर सब कुछ तहस-नहस कर देने पर आमादा होती दीक रही हों। 2019 में इन्हीं दिनों इस पुस्तक की बड़े पैमाने पर चर्चा हुई थी जब उसने 100 वर्ष पूरे किये थे। उसे झाड़-पोंछकर जगह-जगह पर उसका पुनर्पाठ व पुनरावलोकन भी हुआ था। एक सदी और ठीक एक दशक के बाद फिर उसके माध्यम से प्रकाश पाने की ज़रूरत आन पड़ी है। 
यह ऐतिहासिक पुस्तक बापू ने 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जलजहाज पर लिखी थी। उसके लिखने की तिथि जो पुस्तक पर अंकित है, वह है- 22 नवम्बर, 1909। यानी इसका एक सदी और एक दशक पूरा हो गया है। भारतीयों के एक हिंसा समर्थक समुदाय और उनसे मेल खाती विचारधारा के कुछ दक्षिण अफ्रीकी वर्ग के लोगों को दिये गये जवाब के रूप में इस किताब का रूप बनाया गया है। पहले यह उनके दक्षिण अफ्रीका से निकलने वाले अखबार 'इंडियन ओपिनियन' में प्रकाशित हुई थी। सत्य-अहिंसा के सिद्धांतों की वकालत करने वाली यह पुस्तक सिर्फ पाश्चात्य सभ्यता का विरोध करने के लिए नहीं लिखी गयी थी वरन  वह पशुबल व द्वेषधर्म की जगह मानव धर्म व प्रेम सिखाने वाली कालजयी किताब है। इस पुस्तिका का अंग्रेजी में अनुवाद स्वयं महात्मा गांधी ने अपने मित्र कैलनबाख के अनुरोध पर किया था। यह पुस्तक प्रकाशन के तुरंत बाद ही दुनिया भर में चर्चा में आ गई थी।
इसमें पाश्चात्य सभ्यता की कटु आलोचना के कारण बापू के भारत लौटने के पहले ही बरतानी सरकार ने इस पर देश भर में प्रतिबंध लगा दिया था। वैसे तो इसमें लिखे विचारों से अनेक बड़े लोग सहमत नहीं थे। गांधीजी के गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने इसे यह कहकर खारिज कर दिया था कि एक वर्ष बाद स्वयं मोहनदास इसे फाड़कर फेंक देंगे। बापू के पट्टशिष्य जवाहरलाल नेहरू ने भी इसे एकदम अव्यवहारिक घोषित कर दिया था। दूसरी तरफ यूरोप के प्रसिद्ध दार्शनिक जिराल्ड हर्ड ने इस पुस्तक को 'एक महान कुदरती घटना' कहा था, तो विदुषी समाज वैज्ञानिक सोफिया वाडिया ने ऐसे हर एक के लिए इसका अध्ययन ज़रूरी बताया जो लोकशासन के अहिंसक प्रयोग की सफलता चाहते हैं। आखिर नैतिकतावादी व मानवीयता में विश्वास करने वाले सभी लोगों की यह प्रिय पुस्तक क्यों हो गयी?
इसके कारणों को जानने के लिए यह समझना होगा कि गांधी पर जिन दो लेखकों का बड़ा प्रभाव पड़ा था, उनमें एक जॉन रस्किन थे जिनकी 'अनटू दिस लास्ट' नामक किताब है जो उन्हें 1904 में एक मित्र ने जोहन्सबर्ग में दी थी ताकि उनका नाटाल तक का रेल सफर पढ़ते हुए गुजर जाए। उसमें लिखा यह वाक्य कि 'नैतिक नियमों के पालन में ही मनुष्य जाति का कल्याण है', संभवत: उनके जीवन का मूल मंत्र बना। इस पुस्तक का स्वयं गांधीजी ने सर्वोदय के नाम से अनुवाद किया था जो 1908 में प्रकाशित हो गया था। उसकी भूमिका में गांधी जी ने लिखा है- 'सभी धर्मों में नीति का अंश तो रहता ही है पर साधारण बुद्धि से भी देखा जाए तो नीति का पालन आवश्यक है।' स्पष्ट है कि हिन्द स्वराज्य लिखने के पहले गांधी जी इसे पढ़ चुके थे। इसके अलावा उन्हें प्रभावित करने वाले महान नैतिकतावादी रूसी लेखक लियो टाल्सटॉय थे, जिनसे बाकायदे उनकी खतो-किताबत होती थी। उन वे स्वयं कहते हैं कि उन पर लियो का बड़ा असर पड़ा। जीवन में नैतिकता को वे आत्मसात कर चुके थे।
नैतिकता को आत्मसात करने से अहिंसा का जीवन में प्रवेश होना नैसर्गिक नियम है। गांधीजी ने भी संभवत: इसलिए अहिंसा पर बड़ा बल दिया था। इसीलिए अहिंसा व नैतिकता के सूत्रों में रचे-पगे गांधीजी की यह किताब मूल रूप से द्वेष धर्म की जगह पर प्रेम धर्म और हिंसा की जगह आत्मबलिदान को ऊपर रखती है। पशुबल से टक्कर लेने के लिए वह आत्मबल को खड़ा करती है। अगर हम यह सोचें कि आखिर क्यों आज भी इस पुस्तक को उद्धृत किये जाने की ज़रूरत पड़ती है, तो हम कह सकते हैं कि उनके संपूर्ण लेखन व कर्म के जो दो सारतत्व ही आज भी प्रसंगिक हैं और सदा-सर्वदा बने रहेंगे, वे हैं- 'नैतिक नियमों के पालन में ही मनुष्य जाति का कल्याण है' और 'नीति का पालन आवश्यक है।' उनके ये दो सूत्र ही हमें हिन्द स्वराज्य व गांधी की बारंबार याद दिलाते हैं। इसके चलते यह पुस्तक न केवल अब भी चलन में है बल्कि चरम पर पहुंचे भोगवाद, अपरिभाषित भूमंडलीकरण, पूंजीवादी होड़, सत्ता के केंद्रीकरण व निरंकुशता, बढ़ती गैरबराबरी, गरीबी, बेरोजगारी, असंतुलित विकास और बर्बाद होते गांवों के इस दौर में वह और भी प्रासंगिक हो चली है। 
गांधी जी का यह किताब लिखने का उद्देश्य सिर्फ पश्चिमी सभ्यता को दुत्कारना नहीं था। गांधी जी के पास न किसी के साथ स्पर्धा करने का वक्त था और न ही वे ऐसे व्यक्ति थे जो किसी की आलोचना करने के लिए किताब लिखें। उनका मूल उद्देश्य भारत को अपनी परंपराओं पर आधारित समाज रचने में मदद करना था। वे चाहते थे कि देश आजादी की लड़ाई (हालांकि तब तक 'पूर्ण स्वराज्य' या आजादी के लिए 'करो या मरो' की स्थिति नहीं बनी थी) के साथ नवनिर्माण की भी तैयारी करे। उसके लिए जिस मार्ग पर वे चलना चाहते थे, उसके अनुरूप एक भारतीय चेतना को वे रच रहे थे। यह चेतना ही हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई कर रही थी। वे ऐसा देश व ऐसे नागरिक बनाने की कवायद में जुटे थे जिनकी आत्मा भयमुक्त हो, लोग शासित न हों। राज्य व सरकार की न्यूनतम उपस्थिति हो तथा नागरिक स्वावलंबन, विवेकपूर्ण व साहसिक तरीके से अपने निर्णय मिलकर ले सकें। देश समग्रता से भविष्य की ओर चले जिसमें न कोई शासक हो और न ही कोई शासित हो। लोगों के पास स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व का आधार हो। 
इसी परिप्रेक्ष्य में 'हिन्द स्वराज्य' आज फिर से इसलिए प्रासंगिक हो चली है क्योंकि गांधी की तैयार की गयी नागरिक चेतना को खत्म करने की प्रक्रिया बड़ी तेज हो गयी है। इसने देश को राजनैतिक व लोकतांत्रिक अनास्थाओं के दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। गांधी ने शासकवर्ग को प्रजा के नियंत्रण में सतत उत्तरदायी बनाने की अवधारणा विकसित की थी, परन्तु अब सत्ताविरोधी मत बेअसर-अपमानित हो रहा है एवं प्रतिरोध को न्यूट्रलाईज किया जा रहा है। एक तरह से जनता की भूमिका ही खत्म की जा रही है। हरियाणा, कर्नाटक, गोवा आदि के बाद महाराष्ट्र में जनता के फैसलों को अनैतिक तरीकों से पलटाने का काम हो रहा है। उसका उद्देश्य यह है कि सत्ता चाहती है कि आप इन प्रक्रियाओं व संस्थाओं में अविश्वास करने लग जाएं। इस प्रक्रिया से हटकर हम खुद तानाशाही को पैदा करने लग जाएं। गांधी ने सभी वर्गों के बीच एका बनाए रखने के लिए अपनी जान भी दे दी लेकिन अब गांधी के नवीन संस्करण जनता को ही जनता के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं। दूसरी तरफ सरकार व पार्टी के प्रचार तंत्र में फंसे नागरिक मुदित हैं कि किस कुशलता से सत्ता पर कब्जा करने का खेल हो रहा है। वे नहीं जान रहे हैं कि वे अपना जाल खुद बुन रहे हैं।
सच कहें तो एक सदी-एक दशक पुराने 'हिन्द स्वराज्य' का प्रकाश आज अधिक ज़रूरी हो गया है क्योंकि आज न सिर्फ अंधेरा ज्यादा गहरा रहा है बल्कि लड़ाई अपने आप से है। 


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